बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-IIसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- राजस्थानी शैली की विषयवस्तु क्या थी?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. रागमाला चित्रण किससे संबंधित है?
2. वैष्णव परम्परावादी चित्रण का विषय क्या है?
उत्तर -
राजस्थानी शैली के मुख्य विषयों में कृष्ण लीला, बारहामासा, रागमाला, नायिका भेद, रसिकप्रिया रूक्मणी मंगल, नलदमयन्ती, उषा उनिरूद्ध आदि को आधार बना कर चित्रण किया गया।
रागमाला सम्बन्धी चित्रण
रागमाला के चित्रों में कलाकारों ने संगीत जैसे अमूर्त तत्व को चित्रकला जैसी दृश्य कला द्वारा प्रस्तुत कर एक अनोखा प्रयोग किया रागमाला के चित्रों का प्रारम्भिक स्वरूप लगभग 15वीं शताब्दी से दिखायी देने लगता है। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा (1433-1468 ई०) महान एवं कला प्रेमी थे। उन्होंने संगीतराज नामक ग्रन्थ में रागों के मूर्तिकरण का बहुत सुन्दर विवरण प्रस्तुत किया है।
रागमाला सम्बन्धित चित्र राजस्थान की कई शैलियों में मिलते हैं। मेवाड़ में भी इसका अंकन सफलता से किया गया है। इस विषय से सम्बन्धित चित्रों की शैलीगत विशिष्टता को वर्ण, वस्त्राभूषण, स्थापत्य नायक-नायिका आदि के माध्यम से चित्रित किया गया है।
भारतीय काव्य तथा संगीत में राग-रागिनियों को प्रमुखता दी गयी है जिन्हें राजपूत कलम के अन्तर्गत मानवीकृत किया गया है। मुख्यतः छः राग और 30 रागिनियों को भारतीय संगीत में प्रमुख रूप से वर्णित किया गया है।
प्रत्येक राग की ऋतु और प्रहर निर्धारित होता है उसके लक्षण निर्धारित होते हैं। इन सभी का ज्ञान प्राप्त कर राजपूत शैली के कलाकार ने राग-रागिनियों को पट पर संजोया है संगीत और चित्रकला अर्थात् ध्वनि और तूलिका का यह सामंजस्य वास्तव में रूपाकारों की सृष्टि कर एक विशिष्ट प्रकार की लय चित्रों में ध्वनित कर देता है।
वैष्णव परम्परावादी चित्रण
राजपूत चित्रकला के विकास के समय वैष्णववाद का बहुत अधिक प्रभाव था। जिस प्रकार बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ महात्मा बुद्ध की जातक कथाएँ चित्रों का आधार बनी थी उसी प्रकार इस समय के प्रमुख देवता थे विष्णु और उनके अवतार मुख्य रूप से कृष्ण।
इसलिए तत्कालीन कलाकारों ने कलात्मक सर्जना हेतु कृष्ण की प्रणय गाथाओं को आधार बनाकर आत्माभिव्यक्ति प्रारम्भ की। उसके लिए कलाकारों की प्रेरणा बना तत्कालीन साहित्य चण्डीदास, विद्यापति, केशव, बिहारी आदि के ग्रन्थों ने कलाकारों के लिए विषय का विशाल सागर प्रस्तुत कर दिया और इस सागर से प्रवाहित शीतल बयार ने कलाकारों की तूलिका को विविध वर्ण प्रदान किए जिसे राजस्थानी कलाकारों ने पट पर बिखेरना प्रारम्भ कर दिया।
राधा-माधव के अमर प्रेम को चित्रित करते हुए कलाकारों ने आध्यात्मिक परिवेश में ऐसी अभिव्यक्ति प्रस्तुत की जहाँ मानव अपूर्व शान्ति का अनुभव करता है। इस प्रकार कलागत सिद्धान्तों तथा चित्रण के विषय में परिवर्तन हुए और कलाकार अपभ्रंश की जकड़न से बाहर आकर कल्पना एवं वन के उन्मुक्त आकाश में कृष्ण की क्रीडाओं को विविध रसों में अभिसिंचित करने लगे।
वास्तव में वैष्णव चित्रों में जीवन का उल्लास और स्फूर्ति स्पष्ट प्रदर्शित होती है। सूरदास द्वारा शब्दों के माध्यम से जिस लालित्य का वर्णन साहित्य में है वह चित्रों में रंगों द्वारा अभिव्यक्त होता है। इसके अतिरिक्त मेवाड़ की राजकुमारी मीरा बाई ने कृष्ण के सम्मान में कई भजन लिखे। केशव दास ने रसिक प्रिया की रचना की। नायक तथा राधा नायिका थी जिनके आध्यात्मिक प्रेम को लौकिक स्त्री पुरुषों के रूप में अंकित किया गया है।
अन्य देवी-देवताओं का चित्रण
कृष्ण के अतिरिक्त भगवान् राम के जीवन की विभिन्न झांकियां तथा शिव-पारवती के विभिन्न रूपों के दर्शन राजस्थानी चित्रो में देखे जा सकते हैं। इस प्रकार हम देखते कि इस समय हिन्दू. वैष्णव शैव और शक्ति के उपासक थे।
सामाजिक चित्रण
एक ओर राजपूत शैली में साहित्यिक एवं वैष्णव भक्तिविषयक चित्रों की प्रधानता रही वहीं लौकिक एवं सामाजिक विषयों से भी यह शैली दूर नहीं रह सकी।
रामनाथ के शब्द में इसमें वैष्णव भक्ति विषयक चित्रों के अतिरिक्त लौकिक विषय स्वछन्द रूप से प्रदर्शित किये गए हैं। यह कला मध्यकालीन साहित्य का प्रतिबिम्ब है और तत्कालीन धर्म समाज और कला क्षेत्र में व्याप्त प्रवृत्तियों का रंगों के माध्यम से परिचय कराती है। सामाजिक चित्रों की श्रृंखला में कृषक मन्दिर, खलिहान, गृह, बाजार सराय यात्रा आदि चित्रण है। सामाजिक चित्रण की मुगल कला में प्रायः अवहेलना रही किन्तु राजपूत कलाकार को तूलिका से मानव की प्रत्येक संवेदना को छुआ है।
एक चित्र में एक कारीगर को कालीन बुनते हुए दिखाया गया है जिसके समीप इसके औजार तथा साथ ही उसके पारिवारिक सदस्यों को चित्रित कर एक सम्पूर्ण वातावरण प्रदान किया है। इसी प्रकार के अन्य चित्रों में कुएँ या तालाब से पानी भरना, गाय दुहना यात्रा पर जाना आदि दृश्यों को भी दर्शाया गया है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त दिगम्बर जैन ग्रन्थ की 1547 ई० की एक प्रति महापुराण में भी राजस्थानी शैली के चित्र मिलते हैं। इस प्रति में 450 चित्र
व्यक्ति चित्रण
व्यक्ति चित्रण की एक प्राचीन परिपाटी भित्तिचित्रों से दिखायी देती हैं। इसके अतिरिक्त 'समराइच्चकहा' तथा 'कुवलयमालाकहा' से व्यक्ति चित्रण परम्परा के दर्शन होते हैं। साहित्यिक तथा ऐतिहासिक ग्रन्थों में जिस प्रकार का वर्णन पात्रों का है उसी के आधार पर चित्रकार ने तूलिका से उसे प्रत्यक्ष कर दिया है। राजपूत शैली में बने व्यक्ति चित्र मुगल प्रभाव से विकसित हुए। इन चित्रों में विविध राजाओं पारिवारिक सदस्यों मन्त्रियों सामन्तों के साथ-साथ साधु फकीरों, ठाकुरों आदि के व्यक्ति चित्र भी बने हैं। राजपूत शैली में निर्मित बहुत से व्यक्ति चित्रों में राजपूत राजा तथा मुगल सम्राट का एक साथ चित्रण है जो एक ऐतिहासिक तथ्य है।
इसी प्रकार कुछ चित्र ऐसे भी हैं जिसमें राजस्थान के ही दो रियासतों के राजाओं को एक ही चित्र में दिखाया है। लगभग 1710-20 ई० का मारवाड़ शैली का चित्र कनोरिया संग्रह पटना में है। इस चित्र में महाराजा अजित सिंह अम्बेर के राजा के साथ वार्तालाप करते हुए दर्शाया है। दोनों ने छापेदार पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। दोनों के पीछे एक-एक सेवक है। पृष्ठभूमि तथा वास्तु सादा है। तकनीक तथा शैली की दृष्टि में भी चित्रण सरल है।
इसी प्रकार के और भी बहुत से चित्र हैं जिनमें कही एकाकी राजा कहीं पारिवारिक सदस्यों सहित कहीं रानियां आदि चित्रित हैं। इस प्रकार के चित्रो के निर्माण का उद्देश्य शासक के गौरव और स्वाभिमान को स्थापित करना रहा होगा। इस प्रकार के चित्रों में पात्र की शारीरिक संरचना के साथ-साथ उसके स्वभाव का भी बड़ा मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
राजाओं, सम्राटो सेनापति आदि के चित्रों में शौर्य तथा वीरता एवं साधु सन्तों, फकीरों के चित्रों में सरलता के दर्शन होते हैं।
पर्व सम्बन्धी चित्र
राजस्थान शूरवीरों एवं रसिकों की भूमि रही है। एक ओर यदि राजपूत योद्धा युद्ध में तलवार चलाते हैं तो दूसरी ओर रनिवास में प्रेमासक्त भी हैं। इसी प्रकार समय-समय पर होने वाले हिन्दू पर्वो एवं रीती-रिवाजों को राजपूतों ने यथा सम्भव स्थान दिया है।
इन सब का अध्ययन राजपूत कलाकार की तूलिका से मुखरित होकर राजस्थान के परिवेश तथा रहन-सहन को सहज ही मुखरित कर देता है। गोगुन्दा शादी में पधारे, खेजडी नवरात्रि में खड़क जी की सवारी होली, दीपावली, गणगौर पूजन आदि चित्र इस प्रकार के उत्तम दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं।
इसी संदर्भ में बूँदी शैली का चित्र गणगौर उत्सव महत्वपूर्ण है। जिसमें पार्वती के प्रति श्रद्धा को प्रकट करने हेतु गणगौर का चित्रण है जो चैत्रमास में होता है जिसमे स्त्रियाँ देवी पार्वती की आराधना घर को समृद्धि हेतु करती हैं। 15 दिन तक माता की पूजा होती है तत्पश्चात उसे जल में प्रवाहित कर दिया जाता हैं। इस चित्र में स्त्रियों का एक समूह प्रासाद से बाहर आकर माता गौरी की प्रतिमा को जल में प्रवाहित करने के लिए ले जा रहा है।
बारहमासीय चित्रण
वर्ष के 12 मासों में नायक-नायिका की श्रृंगारिक क्रियाओं का समय के अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करते हुए जो चित्रण किया जाता है वह बारहामासा के नाम से सम्बोधित किया गया है।
ग्रीष्म ऋतु में हवा करते हुए श्रावण माह में वर्षा में भीगते हुए. वसन्त में झूमते हुए. शिशिर में आग तापते हुए आदि रूपों को दर्शाया गया है। बारहामासा के चित्रों में चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ आदि के अनुसार ही चित्र में प्राकृतिक अवयवों को अभिव्यक्त कर पृष्ठभूमि का निर्माण किया गया है।
जैसे चैत्र माह में सुन्दर बेलें प्रफुल्ल वृक्ष, भरी हुई नदियाँ, तोता, सारिका आदि का अंकन नायक-नायिका की भावनाओं को सहयोग करता है। वैसाख में वातावरण सुगन्ध से युक्त किन्तु विरहिणी के विरह को उद्दीप्त करता है।
ज्येष्ठ मास में तीव्र सूर्य, सूखी नदियाँ, सरोवर, छाया में विश्राम करते हुए पशु आदि चित्रित हैं। आषाढ में प्रेमासक्त नायक-नायिका श्रावण में हरी भरी प्रकृति नाचते मोर चमकती विद्युत, पृथ्वी आकाश का मयूर घ्वनि के माध्यम से मिलन, भादों में अंधियारे दिन-रात शेर चीतों की दहाड़ मदमस्त हाथी के साथ-साथ नायकों का नायिका के साथ मिलन का संदेश अश्विन कार्तिक, मार्गशीष पौष माघ आदि मासों में स्वच्छ आकाश, खिले कमल पुष्प उद्यान नदियों आदि सभी को प्रफुल्ल चित्रित किया गया है।
मयूरों, कबूतर, कोयल आदि की मधुर ध्वनि तथा फाल्गुन माह में होली में नायक-नायिका की क्रीड़ा के साथ-साथ प्रकृति को भी पर्व में संलग्न हर्षित दर्शाया गया है।
आखेट एवं युद्ध सम्बन्धी चित्र
राजस्थान शूरवीरों की भूमि रही है जो वीरता एवं पराक्रम में अग्रणी रहा है। यहाँ का प्रत्येक शासक आखेट को क्रीड़ा समझता था। चूँकि इन राजाओं ने कलाकारों को आश्रय दिया इसलिए अन्य विषयों के साथ-साथ कलाकारों ने आखेट सम्बन्धी दृश्यों को भी प्रत्यक्ष देखकर या काल्पनिक रूप से बनाया है।
मेवाड़ बूँदी कोटा आदि क्षेत्रों में इस प्रकार के दृश्य है जिसमें राजा अपने साथियों के साथ शेर हरिण हाथी अथवा सुअर का शिकार करते हुए दर्शाया गया है। ऐसे दृश्यों को चित्रित करते समय राजस्थानी कलाकार ने वहाँ चारों ओर के वातावरण से भी प्रेरणा ली।
किसी किले के ऊपर से देखने पर नीचे का दृश्य किस प्रकार प्रतीत होता है यह मेवाड़ शैली के ए रॉयल टाइगर हण्ट (1730-1731 ई०) नामक चित्र स्पष्ट होता है। 25 इंच के उस चित्र में परिप्रेक्ष्य, स्थितिजन्यलघुता के सुन्दर प्रयोग के साथ-साथ लगभग 130 आकृतियाँ घुड़सवार एवं पैदल तथा असंख्य वृक्ष एवं पृष्ठभूमि में पहाड़ियाँ आदि का बारीकी से चित्रांकन किया गया है।
चित्र पर मुगल शैली के शिकार सम्बन्धी चित्रों का प्रभाव है। इसी प्रकार के शिकार के दृश्यों में सघन वनस्पति का प्रयोग राजस्थानी कलाकार ने मुक्त रूप से किया है जिसका उदाहरण मेवाड़ बूँदी, जोधपुर आदि के साथ-साथ कोटा में भी मुख्य रूप से दिखायी देता है। एक और प्रमुख विशेषता इन चित्रों में महत्वपूर्ण है कि राजस्थान में रानियाँ भी शिकार करने जाती थी क्योंकि उनके शिकार के दृश्य भी बूँदी, कोटा आदि स्थानों से मिलते हैं।
ऐसा ही एक चित्र 'लेडिज हण्टिंग टाइगर' है जो मध्य 18वीं शताब्दी का है। रानी अपनी दासियों के साथ दायीं ओर पिस्तौल लिए एक छज्जे पर हैं, अग्रभूमि में जल में बत्तख मगर तथा कमल के फूल पत्ती हैं। बायीं ओर झाड़ियों के मध्य दो चीते हैं जिन्हें रानी अपना निशाना बना रही हैं।
एक चीता पानी पीने का प्रयत्न कर रहा है। दायी ओर की सुन्दर वास्तु के विरोध में घनी वनस्पति का चित्रण है । पृष्ठभूमि में नारंगी तथा सलेटी रंग का आकाश है। जैसा कि किशनगढ़ शैली में निहालचन्द की तूलिका द्वारा निर्मित किया गया है। रेखीय परिप्रेक्ष्य, वर्ण-नियोजन प्रकृति संरचना आदि प्रत्येक दृष्टि से चित्र बूँदी शैली की परिपक्व तूलिका को सिद्ध करता है।
इस प्रकार राजस्थानी शैली में विविध विषयों का रूप परिवर्तित होकर जीवन व्यापी बन गया। राजस्थानी कलाकार ने राज्याश्रय में रहकर जो कुछ भी चित्रित किया उन सभी में जीवन के विविध मूल्य निहित है। कहीं चित्र का आधार साहित्य है कही धर्म, कहीं राजसिक जीवन तो कहीं जन सामान्य वास्तव में राजस्थानी कला दर्शक के हृदय के तारों को पूर्णतः झंकृत करती है जिसके मूल में मानव प्रकृति की मूलभूत प्रवृत्तियाँ एवं संवेदनाएँ हैं जो देशकाल के बंधन से सर्वथा दूर है।
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- प्रश्न- पाल शैली पर एक निबन्धात्मक लेख लिखिए।
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- प्रश्न- पाल शैली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- पाल शैली के चित्रों की विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- अपभ्रंश चित्रकला के नामकरण तथा शैली की पूर्ण विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- पाल चित्र-शैली को संक्षेप में लिखिए।
- प्रश्न- बीकानेर स्कूल के बारे में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- बीकानेर चित्रकला शैली किससे संबंधित है?
- प्रश्न- बूँदी शैली के चित्रों की विशेषताओं की सचित्र व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- राजपूत चित्र - शैली पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- बूँदी कोटा स्कूल ऑफ मिनिएचर पेंटिंग क्या है?
- प्रश्न- बूँदी शैली के चित्रों की विशेषताएँ लिखिये।
- प्रश्न- बूँदी कला पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- बूँदी कला का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- राजस्थानी शैली के विकास क्रम की चर्चा कीजिए।
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- प्रश्न- राजस्थानी शैली के चित्रों की विशेषताएँ क्या थीं?
- प्रश्न- राजस्थानी शैली के प्रमुख बिंदु एवं केन्द्र कौन-से हैं ?
- प्रश्न- राजस्थानी उपशैलियाँ कौन-सी हैं ?
- प्रश्न- किशनगढ़ शैली पर निबन्धात्मक लेख लिखिए।
- प्रश्न- किशनगढ़ शैली के विकास एवं पृष्ठ भूमि के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- 16वीं से 17वीं सदी के चित्रों में किस शैली का प्रभाव था ?
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- प्रश्न- मुगल शैली के विकास पर एक टिप्पणी लिखिए।
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- प्रश्न- तंजावुर के मन्दिरों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तंजापुर पेंटिंग का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- तंजावुर पेंटिंग की शैली किस प्रकार की थी?
- प्रश्न- तंजावुर कलाकारों का परिचय दीजिए तथा इस शैली पर किसका प्रभाव पड़ा?
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- प्रश्न- आधुनिक समय में तंजावुर पेंटिंग का क्या स्वरूप है?
- प्रश्न- लघु चित्रकला की तंजावुर शैली पर एक लेख लिखिए।